सावन का महीना वर्ष के बारह महीनों में सबसे अधिक त्योहारों वाला महत्वपूर्ण महीना है ।इसी महीनों में सावन का झूला सावन के कजरी व सावन का आल्हा व सावन के गुड़िया इत्यादि अतिमहत्वपूर्ण त्योहारों एवं पौराणिक परंपराओं से आच्छादित है यह सावन का महीना ।जिसका अतीत यह दर्शाता है कि हम अपने पुरातन परंपराओं को छोड़कर आधुनिक परंपराओं की चकाचौंध में इस कदर खो गए हैं । कि हमें अपनी संस्कृति की याद तक नहीं आती है इसलिए हमारे सनातन धर्म के लगभग सभी त्यौहार धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे है ।
हमारे त्यौहारों में सावन की कजरी जो अपनी एक अलग महत्व रखती है के बारे में यदि विचार किया जाय तो ऐसा लगता है कि सावन का झूला व कजरी का गीत जो अब शहरों को छोड़कर कहीं कहीं देहातों व कस्बों में ही यदा कदा आज यह परंपराएं जीवित है किंतु अब ये विलुप्त होने के कगार पर पंहुंच रहे हैं जबकि सावन का झूला या कजरी गीत इतना महत्वपूर्ण है कि महिलाएं व कन्याएं आज के लगभग दो दशक पहले प्रातः काल से बागों आदि में सावन का झूला डालकर अपने सखी सहेलियों के साथ में दिन से लेकर देर रात तक झूला झूलती रहती थी साथ ही कजरी का गाना जैसे प्रीतम गए परदेश जीयब हम कैसे…
या झूला डाल देव कदम के डार मा सावन के बहार मा…
या बरसे नन्हीं नन्हीं बुंदिया भीगें राम अगंनवा में …
या हमें जाने देव नैहरवा कजरिया बीत जाईं.. का गीत जोर शोर से गाया जाता था।
सावन के लगते ही झूला पड़ जाता था महिलाएं मां बालाएं कजरी गीत गाती थी बागों में झूला पड़ता था और विवाहित महिलाएं अपने अपने मायके झूला झूलने व कजरी गीत गाती थी कजरी गीत को लेकर सबके मन में काफी हर्षोल्लास रहता था और हर्षोल्लास के साथ गाया जाता था किंतु आज सावन झूला की यह परंपरा केवल दिखावा मात्र ही बची है । सामान लगने व कजरी के समाप्ति तक इक्का-दुक्का यदा-कदा ही सावन का झूला बागों में पड़ा हुआ कहीं दिखाई देता है । इसी प्रकार सावन की कजरी में पुरातन झूला बागों में डाला जाता था और झूला झूलते समय सावन की राग में उपरोक्त कजरी गीत गाया जाता था किंतु आधुनिकता के चलते अब सावन का झूला बागों में ना पड़कर लोगों के घरों के बालेसर व सामने दरवाजे पर खड़े हुए वृक्षों में डाला जाता है जहां पर इक्का-दुक्का महिलाएं झूला झूलने आती है पर कजरी गीत के स्थान पर अब फिल्मी गानें जैसे सावन का महीना पवन करे शोर…
या सावन के झूलों ने मुझको बुलाया मैं परदेशी घर वापस आया…
या सावन आया बादल छाए बुलबुल चहकी धूप खिले…
या फिर अब के बरस हए ये सावन जान न मेरी ले जाए…की फ़िल्मी गीत का गायन होता है जो आज न तो किसी को नहीं भाता है ।इसलिए हम अपनी पुरातन गानों व त्यौहारों को विलुप्त नहोनें दें बल्कि अपने भविष्य के नौनिहालों में पुराने परम्पराओं का समावेश कराएँ जिससे हमारी संस्कृति सुरक्षित रह सके ।
सिद्धार्थनगर से राजेश शास्त्री की रिपोर्ट बी न्यूज