मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश से सुरेश पटेल की रिपोर्ट बी न्यूज
- मुख्य यजमान:- पंडित श्री बृंदावन दुबे/श्रीमती सुनीता दुबे (खड़ेरी)
- सप्तर्षियों द्वारा ध्रुव को उपदेश
मरीचि बोले – “हे राजपुत्र, बिना नारायण के देवता मनुष्य को वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकते हैं, वैसे ही तू उनका भगवान है। “
अत्रि बोले – “जो परा प्रकृति से भी परे हैं वे परमपुरुष नारायण जिससे होते हैं उसी को वह अक्ष पद प्राप्त होता है, यह मैं बिल्कुल सच कहता हूं। “
अंगिरा बोला – “यदि तू अग्रस्थान का इक्षुक है तो जिस सर्वव्यापक नारायण से यह सारा जगत व्याप्त है, तू उसी नारायण की स्त्री कर। “
पुलस्त्य बोले – “जो परब्रह्म, परमधाम और परस्वरूप हैं वे नारायण के देवता हैं, मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपद को भी प्राप्त करता है। “
पुलह बोले – “हे सुव्रत, जिन जगत्पति के गर्भ से इंद्र ने इंद्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णु के भगवान कर। “
क्रतु बोले – “जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं, उन जनार्दन के होने पर कौन सी वस्तु दुर्लभ रह जाती है। “
वसिष्ठ बोले – “हे वत्स, विष्णु भगवान का भगवान करने पर तू अपने मन से जो कुछ चाहे वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकी के श्रेष्ठ स्थान की तो बात ही क्या है। “
ध्रुव ने कहा – “हे महर्षिगण, आप लोगों ने मुझे आराध्यदेव तो बताया। अब कृपा करके मुझे यह भी बताओ कि मैं किस प्रकार उनका भगवान करूं। “
ऋषि बोलेगण – “हे राजकुमार, तू सभी बाहरी विषयों से चित्त को हटाकर एकमात्र नारायण में अपने मन को लगा दे और एकाग्रचित्तु \’ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय \’ इस का निरंतर जाप करूँगा।
ध्रुव की तपस्या-: यह सब सुनकर ध्रुव उन ऋषियों को प्रणाम करके वहां से चल दिए और याया के तट पर अति पवित्र मधुर नामक वन ( मधुवन ) में पहुंच गए।जिस मधुरवन में नित्य श्रीहरि का सानिध्य रहता है उसी सर्वपापहारी तीर्थ में कठोर ध्रुव तपस्या करने लगा।
इस प्रकार दीर्घ काल तक कठिन तपस्या करने से ध्रुव के तपोबल से नदी, समुद्र और पर्वतों सहित समस्त भूमण्डल अत्यंत क्षुब्ध हो गए और उनके क्षेत्र में खलबली मच हो गए।
तब दुनिया ने अत्यंत व्याकुल इंद्र के साथ परामर्श करके ध्रुव का ध्यान भंग करने का परिचय दिया।
वैश्विक लोगों ने माया से कभी हिंसक जंगली व्यक्तियों द्वारा कभी-कभी राक्षसों के ध्रुव के मन में भयादोहन करने की कोशिश की लेकिन रहने पर ध्रुव की माता के रूप में भी उसका ध्यान भंग करने का प्रयास किया।
पर ध्रुव एकाग्रचित्त सिर्फ भगवान विष्णु के ध्यान में ही लग रहा है और किसी की ओर नहीं देखा।
जब तरह-तरह की कोशिशें नाकाम हो गईं तब दुनिया का महाभयास हुआ और सब मिलकर श्रीहरि की शरण में चले गए।
देवता बोले – “हे जनार्दन, हम उत्तानपाद के पुत्रों की तपस्या से जीवात्मा आपकी शरण में आएं हैं।
हम नहीं जानते कि वह इन्द्रपद चाहता है या उसे सूर्य, वरुण या चंद्रमा के पद की अभिलाषा है। आप हमपर प्रसन्न हो जाते हैं और उसे तप से निवृत्त कर लेते हैं। “
श्री भगवान बोले – “हे देवगण, उन्हें इन्द्र, सूर्य, वरूण, कुबेर आदि किसी पद की अभिलाषा नहीं है। आप सब लोग निश्चिंत अपने स्थान को जाओ। मैं तपस्या में लगे हुए उस लड़के की इक्षा को पूर्ण करके उसे तपस्या से निवृत्त समझा। ”
श्रीहरि के ऐसा कहने पर देवतागण प्रणाम करके अपने स्थान को चले गए।
भगवान विष्णु द्वारा ध्रुव को वर प्रदान करें
भगवान विष्णु अपने भक्त ध्रुव की कठिन तपस्या से बन उसके सामने प्रकट हो गए।
श्री बोले भगवान – “हे उत्तानपाद पुत्र के ध्रुव, तेरा कल्याण हो। मैं तेरा तपस्या से प्रसन्न लेन्स देने के लिए प्रकट हुआ हूँ। मैं आपसे अति कर रहा हूँ अब तू अपनी इक्च्छा के अनुसार माँग करता है। “
भगवान विष्णु के ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुव ने छत खोल दी और ध्यान अवस्था में देखते हुए भगवान को शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए साक्षात अपने सामने खड़े देखा।
तब उसने भगवान को साष्टांग प्रणाम किया और सहसा रोमांटिक और परम आत्मावान भगवान की पूजा करने की इक्षा की। पर उनके किस प्रकार की स्तुति करूँ, ये घुमाव का मनव्याकुल हो गया।
ध्रुव ने कहा – “भगवान, मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ पर अपनी अज्ञान कुछ कह नहीं पा रहा हूँ इसलिए आप मुझे इसके लिए बुद्धि प्रदान करें। “
तब भगवान विष्णु ने अपने शंख से ध्रुव का स्पर्श किया। इसके बाद के क्षणों में मात्र ध्रुव भगवान की उत्तम प्रकार से स्तुति करने लगा। जब ध्रुव की पूजा हुई तब भगवान बोले –
” हे ध्रुव, तुमको मेरा साक्षात् दर्शन हुआ है इससे निश्चित रूप से तसया सफल हो जाता है पर मेरा दर्शन तो कभी निष्फल नहीं होता इसलिए जिस वर की इक्षा हो वह मांग ले। “
ध्रुव बोला – “हे भगवान, तुम इस संसार में क्या छिपा है। मैं मेरी सौतेली माता के गर्वित वचनों से आहत होकर आपकी तपस्या में प्रवृत्त हुआ हूँ जिसने कहा था कि मैं अपने पिता के राजसिंहसन के योग्य नहीं हूँ।
इसलिए हे संसार को रचने वाले भगवान, मैं आपकी कृपा से वह स्थान चाहता हूँ जो आजतक इस संसार में किसी को भी प्राप्त न हुआ हो। “
श्री भगवान बोले – “वत्स, तूने अपने पूर्व जन्म में भी मुझे अधिकृत किया था इसलिए तू जिस स्थान की इक्षा करता है वह प्राथमिकता प्राप्त करेगा।
पूर्वजन्म में तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरंतर एकाग्रचित्त रहने वाला, माता पिता का सेवक तथा स्वधर्म का पालन करने वाला था।
बाद में एक राजपुत्र से तेरी मित्रता हो गई। उनके वैभव को देखकर तेरी इक्षा हुई कि \’मैं भी राजपुत्र हूं\’ इसलिए हे ध्रुव, अपना मनोवांछित इक्षा हुई।
जिस स्वायंभुव मनु के कुल में किसी को स्थान व्रत अति दुर्लभ है उसी के घर में तूने उत्तानपाद के यहां जन्म लिया।
जिसने मुझे निश्चय किया है उसके लिए इस संसार में कुछ भी असम्भव नहीं है। मेरी कृपा से तू निश्चय ही उस स्थान को प्राप्त करेगा जो त्रिलोकी में सबसे उत्कृष्ट है और समस्त योजनाएँ और तारामण्डल की शरण है।
मेरे प्रिय भक्त ध्रुव, मैं वह निश्चल ( ध्रुव ) स्थान देता हूं जो सूर्य, चंद्र आदि योजनाएं, सभी नक्षत्रों और सप्तर्षियों से भी ऊपर है।
तेरी माता सुनीति भी वहां आपके साथ निवास करेंगी और जो लोग प्रातःकाल और ईवाकाल तेरा गुणगान करेंगे उन्हें महान पुण्य प्राप्त होंगे। “
धन्य है ध्रुव की माता सुनीति जिन्होंने अपने हितकर वचनों से ध्रुव के साथ स्वयं को भी उस स्थान को सर्वश्रेष्ठ प्राप्त कर लिया।
ध्रुव के नाम से ही उस दिव्य लोक को संसार में ध्रुव तारा के नाम से जाना जाता है।
ध्रुव का मतलब होता है स्थिर, दृक्, अपने स्थान से रुख न होने वाला जिसे भक्त ध्रुव ने सत्य साबित कर दिया।
भक्त ध्रुव की कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि जिसके मन में दृढ़ निश्चय और ह्रदय में निश्चय हो जाता है वह कठोर पुरुषार्थ के द्वारा इस संसार में असंभव को भी संभव कर सकता है।