उन्नाव
उन्नाव से राजेन्द्र कसेरा की रिपोर्ट बी.न्यूज़
भारत का इतिहास किसने लिखा जिन-जिन को यह जिम्मेदारी दी गई थी क्या उन लोगों ने अपने-अपने हिस्से की ईमानदारी लेखन के वक्त बचाए रखी। ईमानदार उत्तर है नहीं। नहीं इसलिए क्योंकि समय-समय पर इन दरबारी इतिहासकारों के लिखे से उलट इतिहास लेखन किया जाता रहा है, भारत के सच को भारतीयों के साथ साझा किया जाता रहा है। असत्यमेव जयते इस कड़ी में जुड़ी एक नई पुस्तक है। इसे लिखा है अभिजित जोग ने।
कॉन्स्टिट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया में असत्यमेव जयते पुस्तक का विमोचन 17 दिसंबर 2022 को किया गया। हिंदी गुजराती और इंग्लिश में प्रकाशित इस पुस्तक के लॉन्च के अवसर पर ऑपइंडिया ने लेखक अभिजित जोग से लंबी बातचीत की। इसमें मुख्य बातें किताब पर तो की ही गईं। साथ में अब तक के इतिहास लेखन सरकार से अपेक्षाएँ वामपंथी गैंग आदि पर भी चर्चा शामिल रही। अभिजित जोग के अलावा लेखिका शेफाली वैद्य से भी इस पुस्तक को लेकर संक्षिप्त बातचीत हुई। पहले अभिजित जोग से हुई बातचीत को पढ़िए।
सवाल सत्यमेव जयते का कॉन्सेप्ट सर्वव्यापी है। इतना कि लोग इसे ही सत्य मान कर चलते हैं। कानून पुलिस प्रशासनिक प्रक्रिया से लेकर दोस्त-परिवार की बातचीत में भी लोग मैं सत्य के साथ खड़ा हूँ।अंतत मेरी जीत होगी टाइप बातें करते हैं। ऐसे में वो क्या वजह रही कि आपको असत्यमेव जयते’ टाइटल से पुस्तक लिखनी पड़ गई।
जवाब सत्यमेव जयते हमारी संस्कृति का आधार है। पूरा हिंदू कल्चर ही सत्यमेव जयते की विचारधारा से प्रभावित है। उसी के आधार पर चलता है। दुर्भाग्यवश हमारा जो इतिहास है।उससे संबंधित जो भ्रांतियाँ फैलाई गई हैं।उसका एक शब्द में अगर वर्णन करना है तो असत्यमेव जयते ही बोलना पड़ता है। इसका कारण है । कि इतिहास लेखन में इतना झूठ बोला गया है कि अगर उसको बयान करना है तो असत्यमेव जयते ही बोल सकते हैं। मतलब हमको अभी असत्यमेव जयते से सत्यमेव जयते की ओर जाना है। इस किताब को लिख कर उसी दिशा की ओर एक कदम उठाया है मैंने।
सवाल आपकी पुस्तक में आर्यन थ्योरी पर भी बात की गई है। हम भारतीय खासकर गेहुएँ रंग वाले आर्यन हैं।कहीं और से आकर यहाँ के मूल निवासियों की सत्ता हथिया ली। इस पर बहुत लिखा गया ।बहुत पढ़ाया गया। क्या यह फूट डालो और शासन करो की नीति का ही एक्सटेंडेड वर्जन था। अगर हाँ तो आजादी के बाद भी क्यों इस थ्योरी को पाला-पोसा गया।
जवाब मैं तो बोलूँगा कि यह फूट डालो और राज करो नीति का आधार था। इसका कारण यह है कि जिसे आर्य कहा गया उनका कोई वंश नहीं है। यह कोई विशेष समुदाय नहीं है। लोगों के वर्ण चेहरे रंग आदि से इसका कोई लेना-देना नहीं। इसका नामकरण लोगों की क्वालिटी के आधार पर रखा गया। जिन लोगों में कुछ किस्म की क्वालिटी थी, उन्हें आर्यन कहा गया। इसको ऐसे समझ सकते हैं कि सभ्य सुसंस्कृत बुद्धिमान औरों की मदद करने वाला शक्तिशाली गुणों से भरपूर लोगों को आर्य कहा गया। इस तरह के अच्छे गुणों वाले लोग आर्य कहलाए।
कई लोगों को लगता था कि उनमें बहुत सारे अच्छे गुण हैं। तो वो खुद को आर्य कहलाते थे। इसमें ऐसा बिल्कुल नहीं है कि कोई एक वंश है। जो आर्य वंश है। इसका गोरे-काले खड़ी या चपटी नाक आदि से कोई संबंध नहीं है। अब सवाल उठता है कि फिर आर्यन थ्योरी आई कैसे। इसका जवाब अंग्रेजों के भारत आगमन से शुरू होता है।
अंग्रेजों ने भारत आगमन के साथ पाया कि यहाँ की भाषा संस्कृत है।जो दुनिया की कई अन्य भाषाओं से मिलती-जुलती है । श्रीलंका से लेकर आइसलैंड तक पूरे विशाल प्रदेश में जितनी भाषाएँ बोली जाती हैं। उनमें से अधिकांश भाषाएँ संस्कृत से साम्य रखती हैं। इनमें यूरोप की बहुत भाषाएँ आती हैं – इंग्लिश फ्रेंच ग्रीक लैटिन ये सब भाषाएँ संस्कृत से काफी समानता रखती हैं। इस बात को अंग्रेजों ने बखूबी समझ लिया। यह भी समझ लिया कि इन सभी भाषाओं में सबसे पुरानी भाषा संस्कृत है। फिर उन्होंने यह भी मान लिया कि इन भाषाओं का उद्भव संस्कृत से हुआ है। उन्होंने यहाँ तक मान लिया कि यूरोप की संस्कृति भारतीय संस्कृति से विकसित हुई है।
जाने-माने विद्वान वॉल्टेयर Voltaire ने तो यहाँ तक कह दिया था कि यूरोप की सभ्यता ने गंगा के किनारों पर ही जन्म लिया है। अंग्रेजों की इस मान्यता को बाद में अंग्रेजों ने ही बदल डाला। इसके पीछे कोई शोध या सामाजिक/वैज्ञानिक अध्ययन नहीं था। बल्कि औपनिवेशिक जरूरत थी। पहले अंग्रेजों की महत्वाकांक्षा भारत में सिर्फ व्यापार तक सीमित थी। बाद में उन्हें अहसास हो गया कि वो यहाँ राज कर भी सकते हैं और लंबे समय तक उनका राज चल भी सकता है।
ऐसे में ‘संस्कृत से यूरोपियन भाषाओं का उद्भव या भारतीय संस्कृति से विकसित हुई यूरोप की संस्कृति’ जैसा नैरेटिव बदलने की जरूरत आन पड़ी। इसके पीछे सिंपल सा तर्क था जिसे वो गुलाम बनाने वाले थे। उसी की संस्कृति को श्रेष्ठ मान कर नीचा कैसे दिखाया जा सकता है।इसी के बाद संस्कृत को बाहर से आई भाषा का खेल रचा गया, यहाँ की संस्कृति को द्रविड़ियन संस्कृति का नाम दिया गया।
असत्यमेव जयते पुस्तक के विमोचन के दौरान
काल्पनिक और मनगढ़ंत कहानियों को रचा गया। जिस संस्कृत को कुछ साल पहले तक अंग्रेजी विद्वानों ने सबसे पुरानी और यूरोपियन भाषाओं की जननी कहा उसे ही अब पश्चिम से आई भाषा बताने लगे। पश्चिम से आए लोगों को आर्य का नाम दिया गया। आर्यों ने यहाँ के मूल निवासियों मतलब द्रविड़ों को मार कर दक्षिण भारत की ओर धकेल दिया यह भी रचा गया। इसके बाद पश्चिम के इन लोगों गोरे सुनहरे बालों वाले नीली आँखों वाले ने ही संस्कृत और वैदिक संस्कृत की रचना की उसका विकास किया।
यह कहानी इसलिए रची गई क्योंकि अंग्रेज खुद भी पश्चिम से आए थे तो उन्हें यह तर्क देने में आसानी हुई कि जो लोग सैकड़ों सालों पहले पश्चिम से आकर आपको सभ्यता/संस्कृति सिखाए वैसा ही ये अंग्रेज लोग भी सिखाएँगे जैसे मॉर्डन सभ्यता रेलवे पोस्ट ऑफिस से लेकर नवीनतम तकनीक तक। मतलब आम भारतीयों के दिमाग में यह भर दिया कि पश्चिम से आए लोग ही सिखाते हैं।यही भारत की परंपरा रही है। इसलिए ये खुद भी सिखाने आए हैं। पूरे देश को गुलाम बनाए रखने और अपने राज को नैतिक आधार देने के लिए इन कहानियों को गढ़ा गया इसे इतनी बार रटा-रटाया गया कि अंतत यह थ्योरी ही बन गई।
स्वतंत्रता के बाद भी अंग्रेजों द्वारा दी गई यह थ्योरी क्यों चलती रही, यह मिलियन डॉलर क्वेश्चन है। इसका कारण यह है कि राज करने के लिए भारत के लोगों को विभाजित रखना है। पहले यह अंग्रेजों का बनाया नैरेटिव था कि भारत के लोगों में इतनी फूट है, इतनी विभाजित है जनता कि उन पर राज करने के लिए किसी थर्ड पार्टी की जरूरत है। ऐसी थर्ड पार्टी जो सबको समान न्याय दे सके। स्वतंत्र भारत में अंग्रेजों वाली थर्ड पार्टी की जगह नेहरू-गाँधी परिवार ने ले ली। इन लोगों ने भी खुद को ऐसे दर्शाया कि भारतीय जनता विभाजित है और उनको एकसमान न्याय देने के लिए नेहरू-गाँधी परिवार बैठा हुआ है।
भारत के सामाजिक/भाषाई विभाजन वाले इस नैरेटिव को चलाने के लिए उन्होंने बनी-बनाई आर्यन इन्वेजन थ्योरी को चालू रखा कि दक्षिण के लोग अलग हैं।उत्तर के लोग अलग हैं। संस्कृत तमिल और हिंदी अलग है। उच्च जाति के लोग आर्यन हैं, जो भारत के बाहर से यहाँ आए जबकि निम्न जातियों के लोग (बहुजन समाज) यहाँ के मूल निवासी हैं। यह विभाजन (मनगढ़ंत) निश्चित तौर पर उनके पक्ष में था।
इसके साथ एक चीज और की गई। स्वतंत्र भारत में इतिहास लेखन का काम वामपंथियों को सौंप दिया गया। और वामपंथियों की तो यह घोषित पॉलिसी ही है कि भारत एक अप्राकृतिक गणतंत्र है और इसके 16 टुकड़े किए जाने चाहिए। मतलब भारत को टुकड़े-टुकड़े में तोड़ना यह वामपंथियों का घोषित मकसद है। उनके इस मकसद के लिए भी आर्यन इन्वेजन थ्योरी की बहुत जरूरत थी। इसलिए राज करने वाले कॉन्ग्रेस और इतिहास लिखने वाले वामपंथियों ने साथ मिलकर इसे अपने-अपने फायदे के लिए आगे बढ़ाया। आप इसको आसान शब्दों में ऐसे समझ सकते हैं कि गोरे अंग्रेज चले गए काले अंग्रेज रह गए।
सवाल हम तो साँप-छुछुंदर वाले लोग थे। बर्बर थे। कुछ समय बाद सूफी आए उन्होंने सौहार्द्र का पाठ पढ़ाया इसके कुछ समय बाद पादरी आए और उन्होंने हमें सभ्यता सिखाई इस हास्यास्पद लेकिन खतरनाक झूठ को कैसे काटा आपने कोई एक उदाहरण देकर बताएँ।
जवाब हम बर्बर थे, यह कहना बहुत ही गलत है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत की सभ्यता पूरे विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है और यह अभी तक जीवित है। इसके विपरीत पुरानी अन्य सभ्यताएँ कब की खत्म हो चुकी हैं, जैसे मिश्र की सभ्यता मेसोपोटामिया की सभ्यता मायन सभ्यता आदि। जिसे हम हिंदू सभ्यता या भारत की सभ्यता कहते हैं। ये आज भी चल रही है। यही कारण है कि यह कई लोगों की नजर में चुभता भी है कि क्यों और कैसे यह संस्कृति अभी भी चल रही है।
भारत की सभ्यता विश्व की पहली ज्ञान-आधारित सभ्यता थी। इसलिए बर्बर वाली बात तो किसी भी एंगल से कही ही नहीं जा सकती है। अब बात सूफियों और उनके सौहार्द्र सिखाने पर। सबसे पहले तो इसे क्लियर कर लीजिए कि सूफियों को किसी भी तरह से कोई भी संत नहीं कह सकता है। जितने भी सूफी भारत आए वो बहुत ही हिंसक और धर्मांध तरह के लोग थे। इनमें कहीं से भी संत प्रवृति का अंशमात्र भी नहीं था। जितने भी बड़े नाम वाले सूफी हैं।जैसे निजामुद्दीन औलिया या मोइनुद्दीन चिस्ती ये सब मुस्लिम आक्रांताओं के साथ बाहर से भारत आए थे।
भारत आने वाले मुस्लिम आक्रांताओं के साथ जो सूफी आए वो जिहाद को सिर्फ समर्थन नहीं देते थे बल्कि खुद भी जिहाद के सिपाही बन कर आए थे। इन सूफियों का यह भी काम था कि अगर कोई मुस्लिम बादशाह राजकाज के कारण नरम भूमिका अपनाने लगे तो उसे संदेश दे कि यह सही नहीं है। वह राजा को इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता काफिरों के साथ सख्ती से ही पेश आना चाहिए जैसी बातें पर याद कराता रहता था। ऐसे सूफियों को किसी भी तरह से संत बोलना या इनके कारण सौहार्द्र आया इसका खंडन असत्यमेव जयते किताब बखूबी किया गया है।
अब आते हैं पादरियों के साथ सभ्यता आई टाइप झूठ पर। जब अंग्रेज भारत आए और ईस्ट इंडिया कंपनी के ऑफिसर ।
सर थॉमस रो 1614 में बादशाह जहाँगीर के दरबार में गए तो भारत में परमिशन माँगी गई थी व्यापार करने की। उन्हें परमिशन मिल भी गई। शुरुआती दिनों में भारतीय संस्कृति को देख कर अंग्रेज अवाक रह गए थे और खुल कर उन लोगों ने कहा भी लिखा भी कि भारतीय संस्कृति बहुत ही श्रेष्ठ संस्कृति है। ऐसे में जिस विषय पर खुद अंग्रेजों ने ही श्रेष्ठता का मुहर लगाया उसी को बाद में पादरियों ने आकर सिखाया, यह हास्यास्पद है।
ईस्ट इंडिया कंपनी और पादरियों को लेकर एक दिलचस्प किस्सा है। शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मिशनरियों को भारत आकर ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार की अनुमति नहीं दी थी। कंपनी ने यह तर्क दिया था कि अगर मिशनरियों ने आकर ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार किया तो भारत के लोग नाराज हो जाएँगे और उनके व्यापारिक हितों को नुकसान पहुँचेगा। आप ऐसे समझिए कि साल 1813 तक भारत में मिशनरियों को आने की परमिशन नहीं थी। फिर इस परमिशन के लिए ब्रिटेन में हिंदू धर्म के खिलाफ खेल शुरू हुआ।
नैतिकता की दृष्टि से हिंदू धर्म कितना गिरा हुआ है। हिंदू समाज कितनी बुराइयों में जकड़ा हुआ है यह सब दिखाने और इसी बात को फैलाने के लिए एक कैंपेन चलाया गया। ब्रिटेन में रहने वाले लोगों के दिमाग में हिंदू धर्म के खिलाफ एक तरह से जनमत का निर्माण करना था। ऐसा करके वो ईस्ट इंडिया कंपनी पर दबाव बनाना चाह रहे थे कि रसातल में पहुँच चुके हिंदू धर्म और समाज को बचाने के लिए ईसाई धर्म और मिशनरियों का भारत जाना बहुत जरूरी है। इसके लिए सती जैसी कुरीतियों यह बिल्कुल गलत थी। इसमें कोई शक नहीं का बढ़ा-चढ़ा कर डेटा दिखाया गया। पूरे भारत में साल भर में 300-400 की संख्या में होने वाली सती की घटनाओं को ब्रिटेन में 40-50-60 हजार बताया जाने लगा। इस कैंपेन की वजह से मिशनरियों को 1813 में भारत आकर अपने धर्म के प्रचार-प्रसार की अनुमति ब्रिटिश पार्लियामेंट से मिल गई क्योंकि ब्रिटेन में हिंदू धर्म के खिलाफ जनमत निर्माण कर दिया गया था।
ईस्ट इंडिया कंपनी के जो लोग 1813 से पहले मिशनरियों को आने भी नहीं देते थे भारतीय संस्कृति को श्रेष्ठ बोलते थे ।ऐसे लोगों में विलियम जोन्स वॉरेन हैस्टिंग आदि ने आखिरी समय तक एड़ी-चोटी का जोर लगाया कि मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगाया जा सके। असत्यमेव जयते पुस्तक में इस बात का जिक्र किया गया है कि इनमें से कई अंग्रेज अफसरों ने संस्कृति के आदान प्रदान ब्रिटेन की संस्कृति भारत को भारत की संस्कृति ब्रिटेन को पर लिखा है कि अगर ऐसा होता है तो इससे फायदा इंग्लैंड को होगा। इससे स्पष्ट है कि मिशनरियों और पादरियों ने आकर भारत को सभ्यता सिखाई यह कहना सरासर गलत है, ऐसे कथनों का कोई आधार नहीं है।
सवाल भारत का इतिहास गुलामी का इतिहास है। इस झूठ को काटते हुए भी आपने लिखा है। लेकिन इससे जुड़े दो सवाल हैं ।
पहला मान लें कि आपकी पुस्तक 10-20-50 लाख लोगों तक पहुँच भी जाए लोग सच से वाकिफ भी हो जाएँ तो भी एक बड़ा वर्ग जो 10वीं कक्षा से नीचे के विद्यार्थी हैं, वो NCERT की किताबों में उसी झूठ को पढ़ रहे हैं।आपके लिखे सच से दूर ही रहेगा। इस समस्या से कैसे निपटा जाए।
दूसरा वर्तमान सरकार शिक्षा नीति में शायद बदलाव कर रही है। शायद इसलिए कह रहा हूँ । क्योंकि समय-समय पर इसको लेकर कोई मंत्री कोई सासंद कुछ बोलते दिखते भी हैं। लेकिन धरातल पर मतलब NCERT की किताबों में यह अभी तक नहीं दिखा है। जो सत्य है। वही लिखा गया है । मान कर बच्चे ऐसे असत्यों को पढ़ते हैं। इस पर सरकार को कोई संदेश देना चाहेंगे ।
जवाब पहला प्रश्न बच्चों के NCERT की पुस्तकों को पढ़ने और उसमें लिखे असत्य इतिहास से है। इसके लिए हम सबको यह प्रयास करना होगा दबाव बनाना होगा कि इन पुस्तकों में बदलाव किया जाए। यह अनिवार्य है, NCERT की पुस्तकों में बदलाव करना ही होगा। यह ठीक ऐसा ही है कि मिशनरियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी पर दबाव बनाया कि उन्हें भारत में आने देना ही पड़ेगा कुछ ऐसा ही दबाव यहाँ भी बनाना होगा।
इसके लिए प्रयास के तहत हमें कथाएँ-कहानियाँ लिखनी चाहिए उपन्यास लेखन करना चाहिए। इन विषयों पर फिल्में बननी चाहिए जो हमारे असली हीरो हैं। जिन्होंने आक्रांताओं का डट कर मुकाबला किया करारी मात दी। आखिर इन हीरो के ऊपर हम कथाएँ क्यों नहीं गढ़ते फिल्में क्यों नहीं बनाते। अगर ऐसा होने लगा हम समाज में अपने हीरो को लेकर सामने आने लगे तो नई पीढ़ी को उनसे जुड़े किस्से कहानियाँ इतिहास सब अच्छा लगने लगेगा, आदर-भाव पैदा होगा। इसके बाद अंतत NCERT की पुस्तकों में बदलाव लाना पड़ेगा। इतने सालों से दबाया गया सत्य कभी न कभी आपको मानना ही पड़ेगा इतने सालों से पढ़ाया जा रहा झूठ त्यागना ही होगा।
इन बातों को लेकिन प्रमाण के साथ सामने रखना होगा। ऐसा होगा तो यह एक बड़ी मुहिम बन जाएगी। फिर हर तरफ इसका प्रभाव दिखेगा NCERT में दिखेगा कॉमन कल्चर में भी दिखेगा। बॉलीवुड की फिल्मों और टीवी सीरियल के सहारे सूफी-सौहार्द्र जो गढ़ा गया वो भी इन्हीं किताबों इतिहास लेखन के दम पर बढ़ाया गया है। उसकी भी असलियत सामने आएगी। अपने हीरो की कहानियाँ अपना इतिहास जब हम लिखेंगे तो माहौल बनेगा। तभी NCERT को भी बदलना पड़ेगा।
सरकार को लेकर मेरा यह मानना है कि अभी जो नई शिक्षा नीति आने वाली है। उसमें बदलाव जरूर आएगा। सरकार इस पर जरूर विश्वास कर रही होगी कर रही है। यह मेरा मत है। इसके बावजूद अगर हम अपने सच्चे-सही इतिहास को लेकर पूरे भारत में बड़े स्तर की मुहिम चलाते हैं तो सरकार के ऊपर भी दबाव बनेगा NCERT के ऊपर भी दबाव बनेगा। कुछ ही दिनों में बदलाव देखने को मिलेगा मेरा विश्वास है कि सरकार उस दिशा में काम कर रही है।
सवाल अभी जिनकी सरकार है ।आपने उनकी ही विचारधारा के आसपास यह पुस्तक लिखी है । ऐसे में इतिहास विजेता लिखते हैं । वाला आरोप आप भी लग सकता है ।कैसे करेंगे आप इसका बचाव
जवाब यह किताब मैंने सरकार के विचार को ध्यान में रखते हुए नहीं लिखी है। मेरे यह विचार कई सालों से रहे हैं। वर्तमान सरकार तो अभी 8 साल से है। कई सालों के अभ्यास और अध्ययन के बाद असत्यमेव जयते किताब को मैं लिख पाया हूँ। सबसे महत्वपूर्ण इसमें यह है कि जो सच है, उसे लोगों के सामने रखना। इसमें सरकार के विचार या दृष्टिकोण का कोई लेना-देना नहीं है।
भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश होगा जिसके इतिहास को पूरी तरह से तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है। हमारे ऊपर झूठ थोपा गया। इसको हटाने के लिए कभी न कभी तो कदम उठाना ही पड़ेगा। वर्तमान सरकार आज है। कल नहीं भी रहेगी मैं चाहता हूँ कि हमेशा रहे लेकिन लोकतंत्र में कुछ भी संभव है। लेकिन अपने देश के सही इतिहास को लोगों के सामने रखने का काम चलते रहना चाहिए। हिंदू समाज में जो जागृति आई है, उसे इसी तरह बढ़ते रहना चाहिए। यह भी बहुत स्पष्ट है कि इसमें किसी एक का पक्ष लेकर लिखने-बोलने का सवाल नहीं है, हमें सच के पक्ष में खड़े रहना है ।और असत्यमेव जयते इसी सच के साथ लिखी गई है।
सच को कभी न कभी मानना ही पड़ेगा। झूठी कहानियों को इतिहास बता कर थोपने के दिन बहुत ज्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है। रह गई बात आरोपों इतिहास विजेता लिखते हैं टाइप बातें की तो किसी का कोई मुँह तो पकड़ नहीं सकता। हाँ यह जरूर है । कि ऐसे आरोप लगाने वाले भी अगर असत्यमेव जयते पुस्तक को पढ़ेंगे तो वो जान जाएँगे कि बिना प्रमाण इसमें कुछ नहीं लिखा गया है। मनगढ़ंत कहानियों को इस पुस्तक में जगह नहीं दी गई है। धीरे-धीरे ही सही, लोगों को सच समझ में आने लगेगा कि इसमें सरकार या किसी विरोधी पक्ष को लेकर कुछ भी नहीं लिखा गया है। असत्यमेव जयते भारत देश का इतिहास है। हमारा इतिहास है। सच्चा इतिहास है और इस सच को हमको सामने रखना ही चाहिए।
असत्यमेव जयते पुस्तक को लेकर लेखिका शेफाली वैद्य से भी संक्षिप्त चर्चा की गई। उनसे जो सवाल किया गया वो लेफ्ट इकोसिस्टम और सच्चे इतिहास को दबाने के उनके नैरेटिव से संबंधित है।
सवाल हम राष्ट्रवादी लोगों पर तथाकथित दक्षिणपंथी का टैग लगा कर खारिज करने की कोशिश की जाती है। ऐसे में जो इतिहास नए सिरे से लिखा जा रहा है । जो इतिहास सच के साथ है। इन लेखकों पर लेफ्ट इकोसिस्टम पूरी जोर-शोर के साथ अटैक करता है। विक्रम संपत ने जब सावरकर पर दो पुस्तकें लिखीं तब किस तरह का अटैक उन पर हुआ सब कुछ तथ्यों को सामने रख कर की गई उनकी लेखनी को ही खारिज किया जाने लगा, क्या उसी तरह का अटैक असत्यमेव जयते के लेखक के साथ भी हो सकती है। इस संभावना को कहाँ तक देखती हैं ।आप और अगर अटैक हुआ तो कैसे उससे निपटा जाए कैसे बचाव किया जाए।
जवाब जब यह किताब बहुत बिकने लगेगी बहुत चर्चा में आ जाएगी तब अटैक होगा। यह ध्यान रखिए कि अगर ऐसा हुआ तो अटैक किताब पर नहीं होगा। वामपंथी गैंग का अटैक किताब या किताब में लिखी सामग्री पर नहीं होगा बल्कि अटैक होगा लेखक पर। लेखक की विश्वसनीयता पर अटैक करके उसे खारिज कर देना वामपंथी गैंग का पुराना हथियार रहा है। एकबार वो लेखक की विश्वसनीयता खत्म कर देते हैं । तो उसके बाद जो भी लिखा गया है। फिर चाहे वो तथ्यों के साथ हो या मनगढ़ंत उसे लिखे हुए की साख अपने आप खत्म हो जाती है।
विक्रम संपत मामले को देख कर इसे आसानी से समझा जा सकता है। वामपंथी गैंग ने विक्रम संपत की किताब या उनकी लिखी सामग्री पर अटैक नहीं किया। अटैक किया गया विक्रम संपत पर उन पर साहित्यिक चोरी कॉपी-पेस्ट का आरोप लगा कर। ऐसा ही अटैक असत्यमेव जयते के लेखक के साथ भी होगा, वो लोग जरूर ऐसा करेंगे। जितनी ज्यादा ये किताब चर्चा में आती जाएगी वामपंथी गैंग का अटैक बढ़ता जाएगा।
रह गई बात क्या करना चाहिए ऐसे अटैक का तो यह मान कर चलिए कि सत्य अपनी जुबान खुद बोलता है। मैंने स्वयं यह पुस्तक पढ़ी है। मुझे बहुत अच्छी लगी। बहुत सरल तरीके के लेखक ने लिखा है ।तथ्यों के साथ लेखन किया गया है। असत्यमेव जयते इतिहास की कोई प्राथमिक सोर्स नहीं है। तथ्यों के साथ इतिहास को इस किताब में रखा गया है। यह उन पाठकों के लिए है, जिन्हें इतिहास में दिलचस्पी है। जिनको यह जानना है। कि आखिर हमारे साथ इतना बड़ा झूठ क्यों बोला गया है, कैसे बोला गया। यह किताब ऐसे पाठकों को प्रेरित करती है । कि वो आगे जाकर पढ़े तथ्यों का मिलान करे।
यह किताब एक शुरुआत है । सच्चे इतिहास की जिज्ञासा की ओर ले जाने की। इसलिए इस पर अटैक होंगे और यह अच्छी बात है। अटैक होने का मतलब ही है कि इस पुस्तक पर चर्चा हो रही है। इस किताब ने असर दिखाना शुरू कर दिया है। अगर किताब में धार नहीं होगी तो अटैक क्यों होगा… इसलिए अटैक तो होगा और मैं चाहती हूँ कि अटैक हो क्योंकि जिनको ये किताब चुभनी चाहिए वहाँ तक यह पहुँच गई है।